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Peehar Ka Birwa | Amarnath Srivastava

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पीहर का बिरवा / अमरनाथ श्रीवास्तव

पीहर का बिरवा

छतनार क्या हुआ,

सोच रही लौटी

ससुराल से बुआ ।

भाई-भाई फरीक

पैरवी भतीजों की,

मिलते हैं आस्तीन

मोड़कर क़मीज़ों की

झगड़े में है महुआ

डाल का चुआ ।

किसी की भरी आँखें

जीभ ज्यों कतरनी है,

किसी के सधे तेवर

हाथ में सुमिरनी है

कैसा-कैसा अपना

ख़ून है मुआ ।

खट्टी-मीठी यादें

अधपके करौंदों की,

हिस्से-बँटवारे में

खो गए घरौंदों की

बिच्छू-सा आँगन

दालान ने छुआ ।

पुस्तैनी रामायण

बँधी हुई बेठन में

अम्मा जो जली हुई

रस्सी है ऐंठन में

बाबू पसरे जैसे

हारकर जुआ ।

लीप रही है उखड़े

तुलसी के चौरे को

आया है द्वार का

पहरुआ भी कौरे को,

साझे का है भूखा

सो गया सुआ ।

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सोच रही लौटी

ससुराल से बुआ ।

भाई-भाई फरीक

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मिलते हैं आस्तीन

मोड़कर क़मीज़ों की

झगड़े में है महुआ

डाल का चुआ ।

किसी की भरी आँखें

जीभ ज्यों कतरनी है,

किसी के सधे तेवर

हाथ में सुमिरनी है

कैसा-कैसा अपना

ख़ून है मुआ ।

खट्टी-मीठी यादें

अधपके करौंदों की,

हिस्से-बँटवारे में

खो गए घरौंदों की

बिच्छू-सा आँगन

दालान ने छुआ ।

पुस्तैनी रामायण

बँधी हुई बेठन में

अम्मा जो जली हुई

रस्सी है ऐंठन में

बाबू पसरे जैसे

हारकर जुआ ।

लीप रही है उखड़े

तुलसी के चौरे को

आया है द्वार का

पहरुआ भी कौरे को,

साझे का है भूखा

सो गया सुआ ।

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